भारत में सार्वजनिक खरीद से जुड़े विवाद आर्थिक विकास पर भारी पड़ते हैं। इनसे इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं अटकती हैं, लागत बढ़ती है और जनता का भरोसा कम होता है। लेकिन 2024 में ऐसे दो महत्वपूर्ण संकेत मिले हैं जो इन विवादों के समाधान में बदलाव की दिशा में निर्णायक साबित हो सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट का “सेंट्रल ऑर्गेनाइजेशन फॉर रेलवे इलेक्ट्रिफिकेशन (CORE) बनाम ECI SPIC SMO MCML (JV)” पर फैसला और वित्त मंत्रालय द्वारा जून में सार्वजनिक खरीद विवाद समाधान के लिए जारी दिशा-निर्देशों ने भारत में मध्यस्थता (arbitration) के ढांचे में सुधार की नींव रखी है। ये दोनों फैसले एड-हॉक मध्यस्थता (ad hoc arbitration) की कमियों को खत्म करने की शुरुआत माने जा सकते हैं।
हालांकि, ये कदम महत्वपूर्ण हैं, लेकिन कुछ अहम सवाल भी उठाते हैं:
- क्या मध्यस्थता को एक प्रभावी, भरोसेमंद और निष्पक्ष प्रणाली बनाया जा सकता है?
- न्यायपालिका पर बोझ बढ़ाए बिना क्या भारत निष्पक्ष परिणाम सुनिश्चित कर सकता है?
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक अनुबंधों में उन शर्तों को असंवैधानिक ठहराया है, जिनमें एक पक्ष (आमतौर पर सरकारी संस्थाएं) अपने स्तर पर एकतरफा मध्यस्थ नियुक्त कर सकती थीं। इससे अक्सर पक्षपात के आरोप लगते थे और स्वतंत्रता की कमी वाले पैनल बनते थे।
मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने स्पष्ट किया कि यह प्रथा पक्षों के बीच समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करती है और प्रक्रिया की निष्पक्षता में हितधारकों का विश्वास कम करती है। यह फैसला एक बड़ा सुधार है, लेकिन यह भी सवाल उठता है कि अदालतों को मध्यस्थता में कितनी हस्तक्षेप करनी चाहिए ताकि न्यूनतम न्यायिक हस्तक्षेप का सिद्धांत प्रभावित न हो।
वित्त मंत्रालय की नई रूपरेखा
पांच महीने पहले, वित्त मंत्रालय ने एक हाइब्रिड विवाद समाधान ढांचा प्रस्तावित किया था। इसके तहत ₹10 करोड़ से कम के विवादों का समाधान संस्थागत मध्यस्थता (institutional arbitration) के जरिए होगा, जबकि बड़े विवादों के लिए मध्यस्थता के बाद न्यायालय में मामला जाएगा। यह सुधारात्मक कदम है।
हालांकि, केवल कम मूल्य के विवादों के लिए संस्थागत मध्यस्थता तक सीमित रखना यह दर्शाता है कि भारत का मध्यस्थता तंत्र अभी इतने परिपक्व नहीं है कि जटिल और उच्च-मूल्य के मामलों को संभाल सके। इससे बड़े विवादों के लिए अदालतों पर निर्भरता बनी रह सकती है, जिससे देरी का खतरा बढ़ता है।
मध्यस्थता की चुनौतियां और समाधान
मध्यस्थता के लिए कई चुनौतियां हैं। भारत में यह प्रणाली अभी भी गति नहीं पकड़ पाई है, खासकर सार्वजनिक अधिकारियों के लिए। समझौते की पहल करने में अधिकारियों के लिए प्रोत्साहन का अभाव और गलत आरोपों का डर, मध्यस्थता को अपनाने में बाधा बनता है।
वित्त मंत्रालय के दिशा-निर्देशों में उच्च-स्तरीय निगरानी पैनल का प्रावधान किया गया है, लेकिन इसकी सफलता इस पर निर्भर करेगी कि इसे कितनी कुशलता से लागू किया जाता है और क्या यह हितधारकों के बीच विश्वास पैदा कर सकता है।
व्यावहारिक चिंताएं और आगे की राह
मौजूदा अनुबंधों में एकतरफा मध्यस्थ नियुक्ति के प्रावधान अब कानूनी चुनौतियों का सामना कर सकते हैं, जिससे चल रही परियोजनाएं बाधित हो सकती हैं। सरकार को अपने मानक अनुबंधों में संशोधन करना होगा ताकि नए कानूनी मानकों के अनुरूप हों।
इसके अलावा, नए विवाद समाधान तंत्र के प्रदर्शन की निगरानी के लिए भारत को एक मजबूत डेटा प्रणाली की आवश्यकता है। इससे नीति-निर्माताओं को सुधार के लिए साक्ष्य-आधारित निर्णय लेने में मदद मिलेगी।
भविष्य की संभावनाएं
सार्वजनिक खरीद विवादों में हजारों करोड़ रुपये की अटकी परियोजनाएं शामिल हैं, जो बुनियादी ढांचे के विकास और आर्थिक वृद्धि पर प्रभाव डालती हैं। यदि भारत इन सुधारों को सफलतापूर्वक लागू करता है, तो यह वैश्विक निवेश आकर्षित करने और ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग में सुधार करने में मदद करेगा।
संस्थागत मध्यस्थता को उच्च-मूल्य के विवादों में शामिल करना न केवल न्यायालयों पर निर्भरता कम करेगा, बल्कि हितधारकों में विश्वास भी पैदा करेगा। यह पारदर्शिता और दक्षता सुनिश्चित करने के लिए व्यवसायों, सार्वजनिक उपक्रमों और कानूनी विशेषज्ञों के बीच समन्वय की भी आवश्यकता है।
अंततः, तकनीक का उपयोग करके परिणामों की निगरानी और बाधाओं की पहचान करना नीति निर्माताओं को डेटा आधारित सुधार करने में मदद करेगा।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला और मंत्रालय के दिशा-निर्देश भारत के सार्वजनिक विवाद समाधान दृष्टिकोण में एक महत्वपूर्ण मोड़ हैं। अगर इस बदलाव को सही ढंग से प्रबंधित किया गया, तो भारत न केवल मध्यस्थता के अनुकूल देश बन सकता है, बल्कि विवाद समाधान में एक वैश्विक नेता भी।