भारत के लिए ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता का लक्ष्य कठिन चुनौतियों का सामना कर रहा है। सरकार के प्रयासों के बावजूद, पावर ट्रांसमिशन सिस्टम, जैसे कि ट्रांसफॉर्मर निर्माण, में देरी हो रही है। इसका कारण वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला की बाधाएं, तांबे की कीमतों में अस्थिरता, और कच्चे माल की कमी हैं। कई सरकारी अधिकारियों और उद्योग के विशेषज्ञों ने इस विषय पर अपनी चिंता व्यक्त की है।
विद्युत सचिव पंकज अग्रवाल ने एक रिपोर्ट में कहा, “दुनियाभर में ट्रांसमिशन एक बड़ी समस्या है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (IEA) की रिपोर्ट बताती है कि 1,650 गीगावाट अक्षय ऊर्जा क्षमता दुनिया भर में ट्रांसमिशन सिस्टम से जोड़ने के लिए इंतजार कर रही है।” अग्रवाल ने सुझाव दिया कि भारत को ट्रांसमिशन उपकरण की घरेलू आपूर्ति श्रृंखला को विकसित करने के लिए उत्पादन-लिंक्ड इंसेंटिव योजना या इसी तरह की पहल पर विचार करना चाहिए। अगले पांच वर्षों में ट्रांसमिशन इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास की लागत में 14.5% की कंपाउंड वार्षिक वृद्धि दर का अनुमान है।
ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (GTRI) ने भी इस दिशा में आगाह किया है कि कोल्ड-रोल्ड ग्रेन-ओरिएंटेड (CRGO) स्टील की कमी, जो ट्रांसफॉर्मर और इलेक्ट्रिक मोटर्स के लिए आवश्यक है, भारत के बिजली क्षेत्र के महत्वाकांक्षी विस्तार को प्रभावित कर सकती है। GTRI की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में CRGO स्टील की मांग का केवल 10-12 प्रतिशत ही घरेलू उत्पादन से पूरा हो पाता है, शेष आयात पर निर्भर है। BIS के लाइसेंस नवीकरण में देरी के चलते यह कमी और बढ़ सकती है।
भारत में CRGO स्टील और तांबा जैसे कच्चे माल की उपलब्धता एक बड़ी चुनौती बन गई है। ट्रांसफार्मर उत्पादन के लिए तांबा, विद्युत स्टील, बशिंग्स, ट्रांसफार्मर ऑयल, और इंसुलेशन जैसी सामग्री आवश्यक है। सरकार ने अगले कुछ वर्षों में कोयला आधारित तापीय और अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं की स्थापना का लक्ष्य रखा है ताकि 2031-32 तक अनुमानित 400 गीगावाट मांग को पूरा किया जा सके।
लेकिन क्या सरकार के दावे हकीकत में तब्दील हो पाएंगे? ट्रांसफॉर्मर निर्माताओं का कहना है कि 220 kV ट्रांसफार्मर्स के लिए लेड टाइम आठ से नौ महीनों से बढ़कर 14 महीने तक हो गया है। इसका एक कारण भारतीय इंजीनियरिंग, प्रोक्योरमेंट और कंस्ट्रक्शन (EPC) ठेकेदारों द्वारा विदेशी परियोजनाओं में भारतीय आपूर्ति श्रृंखला का उपयोग करना भी है, जिससे बिजली ट्रांसफार्मर्स के निर्यात में इजाफा हुआ है।
अंतरराष्ट्रीय मानकों को पूरा करने में हो रही कठिनाइयां भी भारत की राह में कांटे बिछा रही हैं। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (CEA) द्वारा मानकों को विस्तारित करने के बावजूद, सौर डेवलपर्स की सख्ती और खास रेटिंग्स की मांग के चलते उपलब्ध आपूर्तिकर्ताओं की संख्या घट गई है, जिससे मांग और देरी का संकट और बढ़ गया है।
GTRI की रिपोर्ट के अनुसार, जापान, दक्षिण कोरिया और चीन के कई विदेशी आपूर्तिकर्ताओं के लिए BIS लाइसेंस का नवीकरण जल्द ही समाप्त होने वाला है। यदि ये लाइसेंस नवीकरण नहीं होते हैं, तो यह बिजली क्षेत्र के लिए एक और बड़ी मुश्किल साबित हो सकता है। इन लाइसेंसों के बिना गुणवत्ता नियंत्रण आदेशों के तहत सीमित आपूर्तिकर्ताओं और निर्धारित ग्रेड पर ही निर्भर रहना पड़ेगा।
भारतीय कंपनियों, जैसे कि भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (BHEL) और EMCO लिमिटेड, के लिए इन चुनौतियों के बीच उत्पादन बढ़ाना आसान नहीं है। 2016-17 से ही ये कंपनियां कच्चे माल की कमी और आपूर्ति श्रृंखला बाधाओं के कारण उत्पादन बढ़ाने में असमर्थ रही हैं। वैश्विक स्तर पर ट्रांसफार्मर की कीमतें जनवरी 2020 से औसतन 60-80% बढ़ी हैं, जिससे भारतीय उत्पादकों को कड़ी प्रतिस्पर्धा और लाभ मार्जिन में गिरावट का सामना करना पड़ रहा है।
जहां एक ओर मांग बढ़ रही है, वहीं सरकार के हस्तक्षेप की कमी और सख्त नीतियां इस क्षेत्र के लिए गंभीर संकट उत्पन्न कर सकती हैं। बिजली उपकरण निर्माता सरकारी हस्तक्षेप की मांग कर रहे हैं ताकि कच्चे माल की आयात नीतियों में ढील मिल सके और उनकी उत्पादन क्षमता को बढ़ाया जा सके।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि BHEL ने वित्तीय वर्ष 2024 में 9.6 गीगावाट कोयला आधारित परियोजनाओं के लिए लगभग 52,000 करोड़ रुपये के ऑर्डर प्राप्त किए हैं। BHEL ने Q2 वित्त वर्ष 2025 में 30,500 करोड़ रुपये से अधिक के मजबूत ऑर्डर प्राप्त किए हैं, जिसमें दामोदर वैली कॉर्पोरेशन, अदानी पावर और NTPC से बड़े ऑर्डर शामिल हैं।