इन्फोसिस के सह-संस्थापक नारायण मूर्ति ने एक बार फिर अपने उस विचार को दोहराया है जिसमें वे कार्य-जीवन संतुलन पर विश्वास नहीं रखते हैं। हाल ही में CNBC ग्लोबल लीडरशिप समिट में बोलते हुए नारायण मूर्ति ने कहा, “मैं कार्य-जीवन संतुलन में विश्वास नहीं करता।” उन्होंने इस विचार पर अडिग रहते हुए कहा कि वे इसे अपनी अंतिम सांस तक बनाए रखेंगे।
भारत में कार्य-जीवन संतुलन पर अपने विचार साझा करते हुए, नारायण मूर्ति ने जियो फाइनेंशियल सर्विसेज के स्वतंत्र निदेशक और गैर-कार्यकारी चेयरमैन केवी कामथ के शब्दों का उल्लेख किया, जिसमें कामथ ने भारत को एक गरीब और विकासशील देश बताते हुए कहा था कि यहां का ध्यान चुनौतियों पर होना चाहिए न कि कार्य-जीवन संतुलन पर।
उन्होंने कहा, “सच कहूं, तो मुझे बहुत निराशा हुई जब 1986 में हमने छह-दिन से पांच-दिन कार्य सप्ताह पर शिफ्ट किया।” इन्फोसिस के संस्थापक ने आगे कहा, “जब प्रधानमंत्री मोदी हफ्ते में 100 घंटे काम कर रहे हैं, तो हमारे पास उनकी सराहना का सबसे बड़ा तरीका यही है कि हम भी अपनी मेहनत से योगदान दें।”
नारायण मूर्ति ने जोर देते हुए कहा कि भारत में कठिन परिश्रम का कोई विकल्प नहीं है। चाहे आप बुद्धिमान हों या न हों, आपको मेहनत करनी ही होगी। मूर्ति ने अपने विचार स्पष्ट करते हुए कहा, “मैंने अपने पूरे जीवन में कड़ी मेहनत की है और मैं अपने इस विचार को कभी नहीं बदलूंगा, इसे कब्र तक ले जाऊंगा।”
मूर्ति ने आगे कहा कि भारत का विकास आराम और राहत पर नहीं, बल्कि बलिदान और प्रयास पर निर्भर करता है। अगर हम लंबे घंटे काम नहीं करेंगे और मेहनत नहीं करेंगे तो हमारा देश वैश्विक प्रतिस्पर्धियों से पीछे छूट जाएगा।
अपने कार्य नैतिकता पर चर्चा करते हुए, नारायण मूर्ति ने बताया कि वे प्रतिदिन 14 घंटे काम करते थे और अपने प्रोफेशनल कर्तव्यों के लिए हफ्ते में छह दिन से अधिक समय देते थे। उन्होंने बताया कि वे सुबह 6:30 बजे ऑफिस पहुंच जाते थे और रात 8:30 बजे के बाद ही घर लौटते थे।
यह ध्यान देने योग्य है कि नारायण मूर्ति के इस विचार पर पहले भी सवाल उठे थे जब उन्होंने कहा था कि भारत के विकास के लिए हर भारतीय को सप्ताह में 70 घंटे काम करना चाहिए। उनके इस बयान के बाद सोशल मीडिया पर एक बहस शुरू हो गई, जिसमें कार्य-जीवन संतुलन और बड़े कॉर्पोरेट्स में कर्मचारियों के मानसिक स्वास्थ्य पर चर्चाएं हुईं।
क्या नारायण मूर्ति जैसे दिग्गजों का यह सोच ठीक है कि आराम और संतुलन को तिलांजलि देकर ही देश का विकास संभव है? क्या भारतीय कर्मचारियों को उनकी मेहनत और तनावपूर्ण जीवन के बावजूद ‘काम के संतुलन’ के विषय पर विचार नहीं करना चाहिए? या फिर मूर्ति का यह विचार केवल उन लोगों पर ही लागू होता है, जिनके पास पहले से ही पर्याप्त सुविधाएं और संसाधन मौजूद हैं?