वाहन चालकों पर प्रदूषण संबंधी जुर्मानों की संख्या में हाल ही में बड़ी वृद्धि देखी जा रही है। सरकार का दावा है कि यह कदम बढ़ते वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए उठाया गया है, लेकिन क्या वास्तव में यह जनता के हित में है या सिर्फ राजस्व बढ़ाने का एक साधन?
हाल ही में, कई शहरों में प्रदूषण जांच केंद्रों पर वाहन चालकों की लंबी कतारें देखने को मिल रही हैं। कई लोगों का आरोप है कि ये केंद्र सख्त मानकों के नाम पर मनमाने तरीके से जुर्माने लगा रहे हैं। वहीं, कुछ वाहन चालकों का कहना है कि जुर्माने की राशि इतनी अधिक है कि यह उनकी वित्तीय स्थिति पर भारी पड़ रहा है। उदाहरण के लिए, प्रदूषण प्रमाणपत्र न होने पर ₹500 से ₹10,000 तक का जुर्माना लगाया जा रहा है।
क्या यह सही समाधान है?
यह सवाल उठना लाजमी है कि केवल जुर्माने लगाने से क्या प्रदूषण कम होगा, जब तक सार्वजनिक परिवहन सुविधाओं में सुधार नहीं किया जाता? क्या सरकार ने यह सोचा है कि पुरानी गाड़ियां इस्तेमाल करने वाले लोग, जो आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग से आते हैं, इन जुर्मानों को कैसे वहन करेंगे?
सरकार ने यह कदम ऐसे समय पर उठाया है, जब आम जनता पहले से ही महंगाई, बढ़ते कर और अन्य आर्थिक समस्याओं से जूझ रही है। ऐसी स्थिति में इन जुर्मानों को ‘कर आतंक’ कहना गलत नहीं होगा।
सरकार के इरादों पर सवाल
क्या सरकार का असली उद्देश्य प्रदूषण कम करना है या फिर जनता की जेब से अधिक पैसा निकालना? यह सवाल हर नागरिक के मन में उठ रहा है। अगर सरकार वाकई प्रदूषण नियंत्रण को लेकर गंभीर है, तो उसे वैकल्पिक उपाय जैसे इलेक्ट्रिक वाहनों को सस्ता बनाना, सार्वजनिक परिवहन को मजबूत करना और औद्योगिक प्रदूषण पर सख्ती से लगाम लगाना चाहिए।
“क्या सरकार को यह नहीं दिखता कि प्रदूषण फैलाने वाले सबसे बड़े कारण तो कारखाने और निर्माण कार्य हैं? लेकिन शायद वहां जुर्माना लगाना फायदेमंद नहीं होगा क्योंकि वहां से मोटी चंदा राशि आती है। आखिरकार, सरकार को जनता को लूटने का कोई न कोई बहाना तो चाहिए।”
यह सवाल जनता और पत्रकारों का है, जिसका जवाब देना सरकार की जिम्मेदारी है। जनता के लिए ‘सही’ और ‘न्यायसंगत’ समाधान की दरकार है, केवल भारी जुर्माने नहीं।